बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

ये लड़कियाँ

खुद इस्तेमाल हो रही ये लड़कियाँ,
पश्‍चिमी सभ्यता के मोहपाश में,
जकड़ी जा रही हैं ये लड़कियाँ,
नहाने के साबुन से कंडोम के विज्ञापन तक में,
अपना जिस्म दिखा रही हैं ये लड़कियाँ,
कभी फैशन शो में, कभी चीयर्स गर्ल बनकर,
जलवे दिखा रही हैं ये लड़कियाँ,
जिस्म को ढकने के बजाय जिसने,
दिखाने की वस्तु बना दिया,
खुद बदनाम हो गई हैं ये लड़कियाँ,
क्या उम्मीद करूँ बनेगी कोई लक्ष्मीबाई,
जन्म लेगी अब कोई सीतामाई?
जब संस्कृति और संस्कार को नहीं जानेगी,
हम क्या थे, क्या हैं और क्या होंगे?
जब तक जानेंगी नहीं ये लड़कियाँ,
गिरती चली जाएँगी, पतन होता जाएगा,
आपको लगता है सम्मान दिलाएँगी ये लड़कियाँ?
इनको सुधारने क्या कोई नया जन्म लेगी?
अब भी वक्‍त है सुधर जाओ संभल जाओ,
गुजरे जमाने का आदर्श छोड़ रही हैं ये लड़कियाँ,
तलाक, हत्या और बलात्कार की शिकार ये हो रहीं,
जिंदा जलाए जाने की खबर बन रही ये लड़कियाँ,
कहाँ गई वो शर्म, हया, वो त्याग , वो भावना,
कभी आदर्श हुआ करती थी ये लड़कियाँ,
शायरों, कवियों, गजलकारों की विषय जो हुआ करती थी,
डॉक्टरों के यहाँ गर्भपात करा रही ये लड़कियाँ,
आजादी का गलत अर्थ जब-जब निकालेंगे,
बद नहीं बल्कि बदतर हो जाएँगी ये लड़कियाँ,
चाहे हो हिंदू, मुसलमान, सिख, या इसाई,
कभी न कभी होंगी परायी ये लड़कियाँ,
सास-ससुर, ननद और देवर-जेठ के नखरे,
शिक्षा दो इनको कैसे भार उठाएँगी ये लड़कियाँ,
नारी के नारीत्व को जब ये अपनाएँगी,
खुद की ही नहीं, समाज की भी पहचान बनेंगी ये लड़कियाँ ।

उसकी जिंदगी

वह निरा बेवकूफ ही तो था,
जो वचन पूरा करने के चलते,
लाखों के दहेज को ठुकरा दिया,
किया अपने शर्त्तों पर राजी,
नहीं चला वधू पक्ष का जोर,
क्योंकि था सिक्‍का खोटा जैसा,
शादी का वक्‍त गुजर गया जब,
चलने लगा दिमाग पर हथौड़ा,
दवा के नशे को नींद बताकर,
बाँध दी गई वह सच्चे इंसान के साथ,
हाय रे इंसान की मजबूरी,
पास रहके भी इतनी रहती है दूरी,
जाना उसके महसूस किया उसने,
कर ही क्या सकता था ,
वह बेचारा?लाज का मारा, शर्म से हारा,
जिसे कोई इज्जत न थी अपने घर पर,
घौंस जमाया अपने शौहर पर,
शौहर ने सोंचा जीना है अब बच्चों के खातिर,
चाहे पड़े कितनी मुश्‍किल,
देनी अब है अग्निपरीक्षा,
प्रतिकार का जबाब चुप्पी से देना,
पाई हमने है यही शिक्षा-दीक्षा,
देखा है मानसिक रोगियों के हाल?
पूछो उनसे जो जी रहे हैं,
झेल रहे हैं उनके साथ,
बहुत आसान है एक क्या एक सौ सलाह दे देना,
बहुत कठिन है सौ क्या, एक को ही झेल लेना,
गुजारिश है मेरी ईश्‍वर से यही,
सबों को मानसिक रोगियों से बचाओ,
कोई क्या समझेगा हमारी भावना हमारे आदर्शों को,
प्रतीक्षा है बस यही कौन लगाएगा मरहम मेरे जख्मों को ।

उनका कसूर है

चला था ईमानदारी की राह पर,
जमाने ने ठुकराया ये उनका कुसूर है,
दोस्तों ने की हमसे दगा,
वो समझते रहे हमें बेवकूफ तो ये उनका कुसूर है,
हैं हमारी भी कुछ अभिलाषाएँ,
झोंक दिया अपने जीवन को,
पूरा करने निज उद्देश्य को,
वे हमें व्यर्थ समझें तो ये उनका कुसूर है,
हूँ आशावान, सकारात्मकता में जीता हूँ,
सुख नहीं मिले तो गम पी लेता हूँ,
कोई कद्रदान न मिला तो ये उनका कुसूर है,
छोड़ दिया सोचना खुद के बारे में,
जीता हूँ बस थोड़े से गुजारे में ,
कोई मजाक उड़ाए तो ये उनका कुसूर है,
जोड़ रहा हूँ बिखरी शक्‍तियों को,
संकल्पित हूँ सबों को न्याय दिलाने,
कोई न समझे तो ये उनका कुसूर है,
क्या नहीं हो सकता, क्यों नहीं हो सकता?
ठान ले जब कोई, जान ले जब कोई,
बाबजूद इसके कर न पाए, तो ये उनका कुसूर है,
उनके ख्याल उनकी चाहत उनको काम आएँगे,
हमारी राह को भटकाएँगे तो ये उनका कुसूर है,
सुना था भरी महफिल में जाम पिलाया था उसने,
मुझको निगाहों से न पिलाया तो ये उनका कुसूर है,
मेरी मंजिल बस करीब आ पहुँची है लेकिन,
इस बार भी न मिली सफलता, तो ये उनका कुसूर है ।

स्लमडॉग

अपने धंधे चमकाने हेतु,
गरीबों का नया नाम दिया स्लमडॉग,
झुग्गियों में रहनेवाले कुत्ते,
उनकी स्थिति दिखाकर हो गए मालामाल,
बन गए समाचारपत्र के हेडलाईन,
लाना था चर्चा में स्लमडॉग को इसीलिए,
विदेशियों के पुरस्कार और सम्मान की हुई चर्चा पर चर्चा,
खुश हो गए हम विदेशी पुरस्कार पाकर,
मस्त हो गए हम अपनी गरीबी पाकर,
उनकी आदत है गरीबी को पुरस्कृत करना,
हमारी आदत है गरीबी में तृप्त रहना,
क्या खत्म हो सकेगी गरीबी?
गरीबी तो गरीबों के साथ खत्म होगी,
क्या खत्म होगी लाचारी और बेबसी?
ये अलग बात है तब दुनियाँ नहीं होगी,
क्योंकि युद्ध के बाद दुनियाँ बचेगी कहाँ,
मैंने पढा था जब-जब संवेदनशीलता खत्म होगी,
तब-तब होगा एक नया युद्ध......

निमंत्रण

मत करो विचलित मुझे,
अनेक तरह के लॉलीपॉप दिखाकर,
व्यर्थ है डिगाने का प्रयास करना,
पूजने दो मुझे अपने कर्तव्य पथ को,
करने हैं मुझे अनगिनत काम,
बैठा हूँ मैं अभी साधना की वेदी पर,
देना है मुझे अपने संकल्प की आहुति,
जोड़ना है बिखरी शक्‍तियों को,
महान उद्देश्यपूर्ति हेतु जुड़ना पड़ेगा उन्हें,
हो सकता है मैं ही हूँ वह माध्यम,
होगा अब एक और महाभारत,
कृष्ण का पर्याय गोपाल होगा जिसमें,
तलाश है अब मुझे अर्जुन की,
समन्वय, सहकार, स्वाबलंबन, समाधान जैसे,
अस्त्र, शस्त्र, ब्रह्मास्त्र से मौजूद हूँ मैं,
बन रहा है अभी सुदर्शन,
गद्दारों के गला काटने,
दिया निमंत्रण कुरूक्षेत्र भूमि ने,
कौरवों का संहार करने ।

कविता

पीड़ाओं को सहते-सहते,
बहुत द्रवित हो गया जब,
घायल हो गया मेरा अस्तित्व,
भरने लगा जब मवाद,
मैंने निकाला उसका हल,
दिया रूप अपने वेदना-संवेदना को,
नए कविता के रूप में,
कर लिया संकल्प कविता ही है मेरा दोस्त,
उससे दोस्ती का फर्ज निभाऊँगा,
हर माह नई कविता गढ़ जाऊँगा,
मेरे कविता में होगा शोषण,
विद्रोह और क्रांति का जिक्र,
समस्या नहीं समाधान की है मुझे फिक्र,
कविता है मूक अभिव्यक्‍ति और स्पंदन,
विषय होगा जिसका आँसू, दुःख और क्रंदन,
मेरी कविता में होगी नई दृष्टि,
भावनाओं की होगी जिसमें वृष्टि ।

जिनकी जिंदगी हवन है

सूर्य में कितनी तपन है,
अग्नि में कितनी जलन है,
बता सकते हैं वही लोग,
जिनकी जिंदगी हवन है,
क्रांति की शुरूआत करने,
चल पड़ा बेखौफ होकर,
चट्टानों को जो तोड़ दे,
बाधाओं को पार करके,
समाधान की राह चलके,
क्या डिगा सकेगा कोई उसको?
मुत्यु का नहीं हो खौफ जिसको,
कोई जुनूनी ही कर सकता है,
क्या मातृभूमि हेतु सब मर सकता है?
शक्‍तियाँ अब साथ देंगी,
आँधियाँ उल्लास देंगी,
तुम न अपने पथ से डिगना,
क्रांति में अब भाग लेने,
चल के आएँगी अब शक्‍तियाँ,
जोश भरने जुनून भरने,
गद्दारों का अंत करने,
फड़क रही भुजाएँ अब जंग लड़ने ।

दूध का जला

क्यों हुई ये हलचल?
किसलिए हुआ व्याकुल मेरा मन?
दुर्गा, लक्ष्मीबाई की पदवी मिल रही है जिसे,
सौम्य शांत प्रतिभा की मूर्ति थी कभी,
नारी है इक अनबूझ पहेली,
जिसने देखा जितना ,
समझ सका वह उतना,
अब बराबरी की लड़ाई है वह कर रही,
कर लिया है अतिक्रमण उसने दूसरों के अधिकारों पर,
कहाँ गई वह प्रेम- भक्‍ति, वह भावना- उपासना,
दीन-हीन नहीं रही वह अब,
देखा उसने पीछे मुड़कर जब,
छूट गई थी लोक- लज्जा, धीरता-गंभीरता,
स्वप्न नहीं आता अब मुझको,
दुखड़ा अपना सुनाती सबको,
पैसे की भूखी बन बैठी,
हाथों में बढ रही अंगूठी,
मन सोंचा इससे अच्छा तो अकेला था भला,
जानते नहीं अब तो वो ,
छाछ भी फूँककर पीता है,
जैसे हो वह दूध का जला ।

दीदार कैसी ?

इक प्यास है मुहब्बत इससे बगावत कैसी?
दिल की बातें जान लें तो इसमें बुराई कैसी?
प्यार करने के लिए तन नहीं मन जरूरी है केवल,
तीसरे की भला इसमें जगह कैसी ?
हर किसी को सहारे की जरूरत होती है,
बेसहारे ही रहें तो प्रेमिका की उपस्थिति कैसी?
हम बदलेंगे तभी जमाना बदलेगा,
पुराने रिवाजों को ढ़ोते रहें तो बदलाव कैसी ?
नींव के पत्थर बनकर हम रह गए,
खंडहर बताता है इमारत थी कैसी?
बेसहारा बन गया अब जरूरत कैसी?
झोपड़ी में था तो किसी से न पूछा,
महलों में आ गया तो दिल्लगी कैसी?
रिश्तों के डोर टूटने लगे हैं अब,
उनकी सादगी के हो गए दीवाने हम,
वो आई और चली गई,
इक झलक की दीदार कैसी ?

चाहिए

हर पीढ़ी को एक पीर चाहिए,
निज घर फूँककर राह दिखानेवाला कबीर चाहिए,
हिंदी की व्यथा सुननेवाला मातृभाषा का चहेता चाहिए,
जल, जीवन, जंगल, जानवर, जन आंदोलन छेड़नेवाला नेता चाहिए,
जनहित, सरोकार वाली पत्रकारिता चाहिए,
भय, भूख, भ्रष्टाचार नारे के नारे रह गए,
इंडिया शाइनिंग ने नहीं दिखाया प्रभाव,
हमें तो समरसता की धारा चाहिए,
समस्या नहीं बल्कि समाधान चाहिए,
जरूरत है फिर एक नए संपूर्ण क्राति की,
आंदोलन को ढ़ोने वाला मजबूत कंधा चाहिए,
समस्याओं के निदान करनेवाला बहुआयामी फॉर्मूला चाहिए,
हो चुका है क्रांति का आगाज अब हर स्तर पर,
देखने और दिखानेवाला जिंदा लोग चाहिए,
तलाश जारी है धारा के विपरीत काम करनेवालों का,
क्रांति करनेवाले वैसे ही जुनूनी चाहिए,
हो संवेदना और मनुषयता जिसमें,
हमें तो वैसा ही हमसफर चाहिए ।

ये कम तो नहीं

मिल गई अंग्रेजों से आजादी, ये कम तो नहीं,
पहचान गए उन जयचंदों, दुर्योधनों को ,ये कम तो नहीं,
पत्‍नी अनुरूप नहीं मिली ,
प्रेमिका ने सँवारा जीवन ,ये कम तो नहीं,
भ्रष्टाचारियों और कुकर्मियों के इस युग में,
बची है कुछ प्रतिशत ईमानदारी, ये कम तो नहीं,
खींच दिया है संस्कृति के एक बड़े वृत की लकीर को,
पश्‍चिमी संस्कृति के छोटे वृत के उपर, ये कम तो नहीं,
हमने स्वयं को ही स्वाबलंबी बनाया ,ये कम तो नहीं,
कोई दे या ना दे मुझको,
मैंने केवल देना सीखा है, ये कम तो नहीं,
संतुष्ट हूँ अपने कार्यशैली से,
है आशा मंजिल पाने की ,ये कम तो नहीं,
किसने देखा है ,जाना है अपनी मौत को,
मौत के डर से जिंदे में ही कुछ ने ,
बुत बना लिया अपना, ये कम तो नहीं,
सारी रामायण पढ़ लिए और ,
सीता किसकी जोरू जान लिया, ये कम तो नहीं,
बाधाओं और हर मुश्किलों को पारकर ,
जिंदा हूँ अब तक ,ये कम तो नहीं,
दे रहा उन्हें चुनौती जिसकी न की थी कल्पना, ये कम तो नहीं,
होंगे कभी सच अपने सपने भी विश्‍वास है मुझे, ये कम तो नहीं,
दोस्तों ने की दगा, दुश्मनों ने दिया साथ ,ये कम तो नहीं,
मिले हैं कुछ लोग, बाँकी की तलाश है जारी, ये कम तो नहीं,
कद मेरा भले ना हो ऊँचा,
झूठे कद को कम कर दिया, ये कम तो नहीं,
दोस्त बेशक ना बनाया हमने,
दुश्मनों से दुश्मनी कम कर दी, ये कम तो नहीं ।

उनके जाते ही

उनके जाते ही जीवन अब पहाड़ हुआ,
खिलने वाले थे जो कोपल,
मुरझा गए समय से पूर्व ही,
मिलती थी उनके नयनों से शीतलता,
स्वप्न में भी जगा देती थी मुझे वह,
कर्तव्य पालन हेतु देती थी नैतिक दबाब,
उनके जाते ही लगने लगा सूरज भी अंगार,
किसको सुनाऊँगा अपनी वेदना, संवेदना,
दीवारों को कहकर चुप हो जाता हूँ मैं,
उनकी बातों से मिलती थी ऊर्जा मुझे,
उनके जाते ही शिथिल हो गया हूँ मैं,
आशावान हूँ मैं होगी कमी पूरी उनकी,
है इसकी संभावना, मिलेगी वहीं भावना,
खुलेगी बंद खिड़कियाँ,खुलेगा विचारों का प्रवाह,
उनके आते ही खुशबू आएगी,
महकेगी बगिया मेरी जिसके प्रतीक्षा है मुझे।

उलझाने लग गए

समझते-बूझते हुए भी हम उन्हें अनजाने लग गए,
व्याकुल किया प्रणय ने इतना,
हम उन्हें मनाने लग गए,
कातिल हाथ से छूट गए उनके मुखौटे हाथ लग गए,
भूखे पंछी खाकर दानों को जाल सहित उड़ाने लग गए,
देखा जो अपनी हार रहनुमाओं ने तो,
नफरत और विध्वंस के बीज बोने लग गए,
विचारों की शक्‍ति ने दी इतनी मजबूती मुझे,
जिनसे डरता था उन्हें डराने लग गए,
बेहोश था जब मैं मुझको मरा समझ लिया,
मेरे वजूद को गिराने लग गए,
शास्त्रार्थ किया जब मुझसे,
झूठे, मक्‍कारों के अक्ल ठिकाने लग गए,
मेरे मौन को झकझोरा था जिसने,
मेरी वाचालता पर पछताने लग गए,
कातिलों की पहुँच है इतनी,
वे जेल में ही महफिल जमाने लग गए,
कैसे सुलझेगी ये हालात गोपाल,
जिन्हें सुलझाना था,
वहीं उलझाने लग गए ।

शब्द

शब्दों की संरचना से खिलवाड़ हो रहा है अब,
कितनी मुश्किल से गढ़ते हैं एक शब्द को,
शब्द से ही तो बनते रहे हैं शब्दभेदी बाण,
जिस वाण से हत्या होती है एक निरीह की,
शब्दों को खूबसूरती से गढ़ना है कुछ लोगों का काम,
बिना इसके उन्हें नहीं मिलता आराम,
शब्द से ही निकलते हैं अर्थ और भाव,
पर देखना होगा अब हमें अर्थ नहीं भावार्थ को,
क्योंकि अर्थ और भावार्थ में काफी अंतर हो गया है,
मेरा मन शब्दों को पिरौने में लगा है,
ढूँढने लगा है उन भावार्थों को,
वे भावार्थ जिसे बताता नहीं कोई,
लगता है बचाना पड़ेगा शब्दों को बलात्कार से,
बचाना पड़ेगा उसे वीभत्स कुकर्मों से,
क्योंकि सिवा शब्दों के कुछ शेष नहीं है अब,
एक जमाना था जब शब्दों की महत्ता हुआ करती थी,
ना अब वो शब्द रहे ना बचा अब शब्दों की मर्यादा,
विचार श्रृंखला में स्थापित करना पड़ेगा अब शब्दों को,
सजाने सँवारने और घूँघट की मर्यादा से,
विभूषित करना पड़ेगा अब पुनः शब्दों को,
तभी शब्दों के साथ-साथ,
बचा रहेगा हमारा अस्तित्व भी ।

खत

कभी काट कर रख देते थे वे अपना जिगर खत में,
नहीं मिलता है अब वह खत,
पाता हूँ इंटरनेट पर उसका ईमेल,
पाता हूँ एसएमएस भी उनका,
पर नहीं मिलती उससे भावनाओं की संतुष्टि,
जब से हाथ का स्थान की बोर्ड ने ले लिया,
बदल गए मूल्य, बदल गई भावना,
बदल गई मौलिक चिंतन,
अनुभूति और भावनाओं का स्पर्श,
क्या ईमेल और एसएमएस पत्र का स्थान ले सकता है?
सोचता है मेरा मन,
सजाकर किताबों में रखता था उनके खत,
क्या कंप्यूटर हमारी भावनाओं को समझेगा?
दिलाएगा मुझे वापस वही शब्द,
वही अर्थ और भावार्थ,
चंद पंक्‍तियों की शायरी और गजल से भीगी,
उनकी याद उनके भावनाओं का सजीव स्पर्श,
है अपेक्षा क ऐसे सॉफ्टवेयर के निर्माण का,
जो दे मुझे सुकून और मेरे प्रश्नों का हल ।

कठिनाई

प्रतिस्पर्घा और शंकाओं से भरे इस युग में,
बहुत कठिन है किसी के मन को खोलना,
जी रहे हैं लोग दोहरी जिंदगी में,
नकाब पर नकाब और चेहरे पर चेहरा,
लगाए बैठा है हर शख्स यहाँ,
कठिनाई होगी ही उन्हें जानने पहचाने में,
क्योंकि जो दिख रहा है वह नहीं है उसकी वास्तविकता,
वास्तविकता खोजनी पड़ेगी खुद तुम्हें,
और खोजने के लिए चाहिए एक दृष्टि,
बिना दृष्टि के खोज रहेगी अधूरी,
जानिए उनके झूठे शान-शौकत कैसे हुई है पूरी?
ऐसे लोगों में सुख छिन गया,
दुख रहा नहीं अपना,
कटुताओं से भरी है उनकी जिंदगी,
झाँकने पर दिख पड़ेगी तुम्हें,
खोल नहीं सकते ये अपने मन को,
अनैतिकता और कुंठाओं ने जकड़ दिया उन्हें,
नहीं झेल पाएँगे प्रश्नों की बौछार वे,
हिल जाएँगे वे अंदर तक,
क्योंकि नैतिकता के मजबूत धरातल पर,
नहीं है वजूद उनका ।

कंकड़

बैठ गया था शांत तालाब के किनारे,
फेंका पहला कंकड़,देखा उभरते तरंगों को,
आँखों से नापा उसकी दूरी,
फेंका दूसरा कंकड़,
देखा पुनः उभरते तरंगों को,
आँखों से नापा उसकी दूरी,
चलता रहा यह क्रम,
दर्ज होता रहा तरंगों की विभिन्‍न दूरियाँ,
लगता है चल रहा है यही क्रम,
मेरे जिंदगी में कोई फेंक रहा है,
कंकड़ फिर कंकड़,
नाप नहीं पाता हूँ उसकी दूरी,
यही है लाचारी हमारी,
क्या कंकड़ का क्रम चलता रहेगा?
मेरा व्यक्‍तित्व तरंगों की तरह हिलकोरे लेगा?
पूछ रहा है मेरा अंतर्मन,
क्या कोई ऐसा भी कंकड़ होगा?
जो हिला देगा मेरे वजूद को,
या संभाल देगा,
तराश देगा मेरे व्यक्‍तित्व को,
प्रतीक्षा, तलाश और आशा है केवल उसकी ।

स्त्री

पुरूष चाहता है एक ऐसी स्त्री,
जो उसे अपने पलकों की छॉव में बसा ले,
कर सके उसके गमों को कम,
उत्साह जगा दे,
हौसला बढ़ा दे,
जीवन और काम में जो न बने बाधा,
दे सके जो अपनी तमाम खुशियाँ,
कोयल की फूँक सी जो गीत सुना दे,
स्त्री का उदासीन रहना,
न बोलना, ना हँसना, ना रोना,
अपने आप में बहुत कुछ कहता है,
कहते हैं औरतों के एक-एक आँसू में,
कई एक समुन्दर होता है,
स्वर्ग भी स्वर्ग नहीं लगता,
एक स्त्री के बिना इसलिए तो,
स्वर्ग और स्त्री में से चुनना हो तो,
पुरूष स्त्री को ही चुनेगा,
क्योंकि अधूरा है उसका अस्तित्व,
बिना एक स्त्री के,
जो पी जाती है अश्रुधार,
सह लेती है नौ माह के वेदना को,
पालती है दुख-दर्द सहकर भी,
अपनी औलादों को,
क्या स्त्री के बिना,
है इस सृष्टि की कल्पना संभव ?

दिन में शाम

उनके आने पर बिखर जाती है नूर,
कोई तो पूछे हो सकती है वो हमसे दूर,
दिया है उसने तीन-तीन चिराग,
बिन माँगे मुझे मिल गई मुराद,
सुन लो मेरे ईश्‍वर मेरे भगवान,
पूरे हो सब के सब मेरे अरमान,
जल्द जारी करो ऐसा फरमान,
ना रहे अब कोई बेईमान,
करूणा, मानवता, ईमानदारी है वीरान,
विश्‍व का ही है इसमें नुकसान,
बेईमानी, अत्याचार, भ्रष्टाचार का यह विधान,
मिटा देगा जल्द ही यह जहान,
करना पड़ेगा जल्द ही यह काम,
रोक देंगे सूर्य को,
होगी जब दिन में शाम ।

चुनौती न दिया कर

मैनें किया नहीं ऐसा काम,
मुझको बदनाम न कर,
हमारे संबंधों के चर्चाओं को सरेआम न कर,
निगाहें फेरकर मुझे छोड़ दी अकेले,
मरहम न लगा सको बेशक,
जख्मों को हरा न कर,
सोचा है क्या होगा उसके बाद,
क्या फर्क पड़ता है तुमको,
एक सवाल का जबाब न दिया अब तक,
फिर सवाल पर सवाल न कर,
कौन मरा किसके लिए इतिहास में दर्ज हो जाएगा,
मुझको बार-बार मरने से यूँ रोका न कर,
दे न पाऊँगा तुम्हें मैं वो तमाम खुशियाँ,
मेरे नसीब में ही दुख है मुझे रूसवा न किया कर,
कल्पना में ले लो आनंद, हकीकत न बन सके गर,
प्यार के स्वप्निल घरौंदों को एक झटके में तोड़ा न कर,
क्यों छोड़ दिया मुझको तनहा तुमने,
फिर छोड़कर मुझको जाया न कर,
गुजर जाएँगी यादें, गुजर जाएँगी लम्हे,
शेष बचेगा क्या यह सोचकर पागल न बना कर,
रोशनी में नहीं दिखता है अंधेरा,
लोगों के भीड़ में मुझे देखा न कर,
नहीं रहने देगी चैन से ये दुनियाँ,
अपने दुख दर्द उन्हें सुनाया न कर,
खोज लिए हैं तुम्हारे प्रश्नों के हल,
इस तरह हमसे इम्तहान न लिया कर,
मेरी तरह रोती हो रात भर तुम भी,
नहीं रोने का मुझे नाटक न किया कर,
जीत लेंगे बाजी, माँग लेंगे रब से तुम्हें,
तुम हमेशा मुझे इस तरह चुनौती न दिया कर ।

अर्थ

सत्य अहिंसा के केवल भाषण हैं चल रहे,
चार कदम आगे बूचड़खाने, मयखाने हैं खुल रहे,
खींच रहें हैं कुछ लोग मेरे अस्तित्व को,
उन भेड़ बकरियों की तरह,
कुछ देर बाद हत्या होगी,
मेरे मूल्य, आदर्श, नैतिकता की,
फिर कुछ लोग भक्षण करेंगे,
मेरे माँस को सुरा के साथ,
होगी फजीहत गाँधी के आदर्शों की,
गाँधी के बलिदान से मिली थी जो आजादी,
आजाद वही लोग दे रहे हैं उनके सिद्धांतों को गाली,
उनका उद्देश्य मात्र गद्दी है पाना,
कमजोरों, मजलूमों के दुखती रग को सहलाना,
सहलाने का अर्थ है सहलाना नहीं बल्कि,
सहलाने का दिखावा करना,
गाँधी के हरिजन बनते रहेंगे मूर्ख,
जब तक नहीं समझेंगे वे अपने शक्‍ति को,
सत्य अहिंसा का अर्थ अब बदल गया है,
गढ़नी होगी अब नई परिभाषा,
दलितों को आजादी की अब भी है आशा ।