बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

शब्द

शब्दों की संरचना से खिलवाड़ हो रहा है अब,
कितनी मुश्किल से गढ़ते हैं एक शब्द को,
शब्द से ही तो बनते रहे हैं शब्दभेदी बाण,
जिस वाण से हत्या होती है एक निरीह की,
शब्दों को खूबसूरती से गढ़ना है कुछ लोगों का काम,
बिना इसके उन्हें नहीं मिलता आराम,
शब्द से ही निकलते हैं अर्थ और भाव,
पर देखना होगा अब हमें अर्थ नहीं भावार्थ को,
क्योंकि अर्थ और भावार्थ में काफी अंतर हो गया है,
मेरा मन शब्दों को पिरौने में लगा है,
ढूँढने लगा है उन भावार्थों को,
वे भावार्थ जिसे बताता नहीं कोई,
लगता है बचाना पड़ेगा शब्दों को बलात्कार से,
बचाना पड़ेगा उसे वीभत्स कुकर्मों से,
क्योंकि सिवा शब्दों के कुछ शेष नहीं है अब,
एक जमाना था जब शब्दों की महत्ता हुआ करती थी,
ना अब वो शब्द रहे ना बचा अब शब्दों की मर्यादा,
विचार श्रृंखला में स्थापित करना पड़ेगा अब शब्दों को,
सजाने सँवारने और घूँघट की मर्यादा से,
विभूषित करना पड़ेगा अब पुनः शब्दों को,
तभी शब्दों के साथ-साथ,
बचा रहेगा हमारा अस्तित्व भी ।

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