बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

कंकड़

बैठ गया था शांत तालाब के किनारे,
फेंका पहला कंकड़,देखा उभरते तरंगों को,
आँखों से नापा उसकी दूरी,
फेंका दूसरा कंकड़,
देखा पुनः उभरते तरंगों को,
आँखों से नापा उसकी दूरी,
चलता रहा यह क्रम,
दर्ज होता रहा तरंगों की विभिन्‍न दूरियाँ,
लगता है चल रहा है यही क्रम,
मेरे जिंदगी में कोई फेंक रहा है,
कंकड़ फिर कंकड़,
नाप नहीं पाता हूँ उसकी दूरी,
यही है लाचारी हमारी,
क्या कंकड़ का क्रम चलता रहेगा?
मेरा व्यक्‍तित्व तरंगों की तरह हिलकोरे लेगा?
पूछ रहा है मेरा अंतर्मन,
क्या कोई ऐसा भी कंकड़ होगा?
जो हिला देगा मेरे वजूद को,
या संभाल देगा,
तराश देगा मेरे व्यक्‍तित्व को,
प्रतीक्षा, तलाश और आशा है केवल उसकी ।

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