बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

स्त्री

पुरूष चाहता है एक ऐसी स्त्री,
जो उसे अपने पलकों की छॉव में बसा ले,
कर सके उसके गमों को कम,
उत्साह जगा दे,
हौसला बढ़ा दे,
जीवन और काम में जो न बने बाधा,
दे सके जो अपनी तमाम खुशियाँ,
कोयल की फूँक सी जो गीत सुना दे,
स्त्री का उदासीन रहना,
न बोलना, ना हँसना, ना रोना,
अपने आप में बहुत कुछ कहता है,
कहते हैं औरतों के एक-एक आँसू में,
कई एक समुन्दर होता है,
स्वर्ग भी स्वर्ग नहीं लगता,
एक स्त्री के बिना इसलिए तो,
स्वर्ग और स्त्री में से चुनना हो तो,
पुरूष स्त्री को ही चुनेगा,
क्योंकि अधूरा है उसका अस्तित्व,
बिना एक स्त्री के,
जो पी जाती है अश्रुधार,
सह लेती है नौ माह के वेदना को,
पालती है दुख-दर्द सहकर भी,
अपनी औलादों को,
क्या स्त्री के बिना,
है इस सृष्टि की कल्पना संभव ?

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